‘एक देश, एक बोर्ड, एक फीस, एक पाठ्यक्रम’ की मांग को लेकर वाराणसी में हनुमान चालीसा पाठ के बाद PM को संबोधित ज्ञापन सौंपा गया

वाराणसी, 9 जुलाई, 2025: भारत में शिक्षा के बढ़ते व्यवसायीकरण और महंगी होती शिक्षा के खिलाफ ‘धरोहर संरक्षण सेवा संगठन’ के ‘केसरिया भारत’ आयाम ने आज वाराणसी में एक अनोखा प्रदर्शन किया। संगठन के प्रमुख संयोजक कृष्णानंद पाण्डेय के नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने 108 बार श्री हनुमान चालीसा का पाठ करने के बाद जिलाधिकारी वाराणसी को प्रधानमंत्री, भारत सरकार को संबोधित एक ज्ञापन सौंपा। इस ज्ञापन में “एक देश, एक बोर्ड, एक फीस, एक पाठ्यक्रम” की क्रांतिकारी पहल लागू करने की मांग की गई है ताकि महंगी शिक्षा से उत्पन्न हो रही सामाजिक बुराइयों को खत्म किया जा सके।

जिलाधिकारी पोर्टिको में आयोजित एक सभा को संबोधित करते हुए संगठन के प्रमुख संयोजक कृष्णानंद पाण्डेय ने कहा कि भारत जैसे विशाल और प्राचीन संस्कृति वाले देश में आज शिक्षा एक व्यापार बन गई है। उन्होंने जोर दिया कि जहां शिक्षा का उद्देश्य समाज को सुसंस्कृत, समभावी और आत्मनिर्भर बनाना था, वहीं आज यह असमानता, आर्थिक बोझ और सामाजिक विभाजन का कारण बन रही है।


महंगी शिक्षा के सामाजिक दुष्परिणाम

वक्ताओं ने महंगी शिक्षा के कारण समाज में आ रही विभिन्न समस्याओं को उजागर किया:

  • सामाजिक समरसता का विघटन: पाण्डेय ने कहा कि आज एक ही कक्षा के विद्यार्थी अलग-अलग बोर्ड, पाठ्यक्रम और फीस ढांचे में पढ़ रहे हैं। श्रीकृष्ण और सुदामा अब एक ही विद्यालय में नहीं रहे। एक समृद्ध परिवार का बच्चा अंतरराष्ट्रीय स्कूल में पढ़ रहा है, जबकि सामान्य आय वाला बच्चा सरकारी या क्षेत्रीय बोर्ड में, जिससे सामाजिक समरसता खंडित हो रही है।
  • पारिवारिक तनाव और विघटन: जब एक ही परिवार में दो भाइयों के बच्चों को अलग-अलग स्कूलों में पढ़ाने की मजबूरी होती है, तो पारिवारिक मनभेद और आर्थिक असमानता पैदा होती है, जिससे रिश्तों में खटास और तनाव आता है।
  • जनसंख्या नियंत्रण पर प्रभाव: कृष्णानंद पाण्डेय ने चिंता व्यक्त की कि सनातन समाज का युवा जब परिवार बढ़ाने की सोचता है, तो शिक्षा का अत्यधिक खर्च उसे पीछे खींचता है। अधिकांश युवा एक या अधिकतम दो बच्चों की योजना बनाते हैं, जिसका प्रमुख कारण महंगी शिक्षा है। इसे एक गंभीर सामाजिक और सांस्कृतिक संकट का संकेत बताया गया।
  • प्रतिभाओं का पलायन और सरकारी स्कूलों की अनदेखी: गौरीश सिंह ने कहा कि महंगे निजी विद्यालयों की फीस और प्रतिस्पर्धा ने गांव-गांव से प्रतिभाओं को पलायन के लिए मजबूर कर दिया है, जबकि सरकारी विद्यालयों को नजरअंदाज कर बंद किया जा रहा है, जिससे शिक्षा का विकेंद्रीकरण और गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो रहे हैं।

‘एक देश, एक बोर्ड, एक फीस, एक पाठ्यक्रम’ का प्रस्ताव

सारिका दूबे ने इस विकराल स्थिति का समाधान एक सरल, परंतु दूरदर्शी नीति में बताया:

  • एक ही बोर्ड: जिससे शिक्षा की गुणवत्ता, मूल्यांकन और प्रमाण पत्र सबके लिए समान हों।
  • एक ही पाठ्यक्रम: अविनाश आनंद ने कहा, जिससे सभी छात्रों को समान ज्ञान और मूल्य प्राप्त हों।
  • एक ही फीस: जिससे आर्थिक स्थिति से परे हर बच्चा समान शिक्षा प्राप्त कर सके।
  • भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा: गौरव मिश्र ने कहा कि भारतीय संस्कृति, भाषा और नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा से समाज फिर से आत्मनिर्भर और समरस बन सकेगा।

गौरव मिश्र ने आगे कहा कि यदि कक्षा 10वीं तक सरकारी और निजी विद्यालयों में समान पाठ्यक्रम और समान फीस होगी, तो माता-पिता सरकारी विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित होंगे। इससे शिक्षा का निजीकरण रुकेगा, सरकारी संसाधनों का सदुपयोग होगा, और समाज में शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य पुनः स्थापित होगा। उन्होंने जोर दिया कि “एक देश, एक बोर्ड, एक फीस, एक पाठ्यक्रम” केवल एक नारा नहीं, बल्कि यह शैक्षणिक समानता, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की नींव है।

इस कार्यक्रम में प्रमुख रूप से सतीश पाण्डेय, उपेंद्र सिंह, रमाकांत पाण्डेय, प्रियंवदा मिश्र, हरिश्चंद्र चौबे, चंद्र देव पटेल, अजय मिश्र, विनोद वेणवंशी, अमित सिंह, विपिन सिंह, सोनू गोंड, पंचम गुप्ता, विनीत दुबे, शुभम् पाण्डेय सहित सैकड़ों कार्यकर्ता उपस्थित रहे।


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