धर्म बदलने के बाद भी नहीं हटा ‘अछूत’ का टैग! दलित ईसाइयों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में गरमाई बहस

तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु: तिरुचिरापल्ली के कोट्टापलायम गांव के दलित ईसाई ग्रामीणों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई एक याचिका ने देश में धर्म परिवर्तन के बाद भी जातिगत भेदभाव के गंभीर मुद्दे को फिर से सामने ला दिया है। इन ग्रामीणों ने आरोप लगाया है कि ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद उनके साथ जाति के आधार पर भेदभाव जारी है और उन्हें ‘अछूत’ जैसा व्यवहार झेलना पड़ रहा है।


क्या है पूरा मामला?

याचिकाकर्ताओं ने अपनी अपील में बताया है कि उन्हें चर्च के उत्सवों में भाग लेने की अनुमति नहीं है और वार्षिक उत्सव के दौरान भी उनके गली में चर्च की गाड़ी (कार) नहीं आती। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि उन्हें चर्च का सदस्य भी नहीं माना जाता और सामुदायिक भवन में कार्यक्रम आयोजित करने की अनुमति नहीं दी जाती। दलित ईसाई इकाइयों ने इस मुद्दे पर जिला और राज्य अधिकारियों को कई बार ज्ञापन दिया, लेकिन कोई उचित कार्रवाई नहीं हुई।

इस याचिका पर सर्वोच्च अदालत ने 21 फरवरी को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, तमिलनाडु पुलिस और चर्च अधिकारियों सहित अन्य से जवाब मांगा था।


अल्पसंख्यक आयोग ने जांच से किया इंकार, याचिका खारिज करने की मांग

इस मामले में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने जवाब में चौंकाने वाला रुख अपनाया है। आयोग ने कहा है कि याचिकाकर्ताओं (दलित ईसाई जे दौस प्रकाश समेत अन्य) ने मद्रास हाईकोर्ट में राज्य पुलिस की रिपोर्ट पर कोई उत्तर दाखिल नहीं किया। ऐसी स्थिति में केंद्रीय आयोग इस मामले को लेकर किसी भी कार्रवाई को आगे नहीं बढ़ा सकता है। आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से याचिकाकर्ताओं के सभी आरोपों को नकारते हुए इस याचिका को खारिज करने की मांग की है।

आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए बताया कि चूंकि यह मामला पहले हाईकोर्ट में था और याचिकाकर्ताओं ने पुलिस की रिपोर्ट पर जवाब नहीं दाखिल किया, इसलिए आयोग आगे कदम नहीं बढ़ा सकता।


हाईकोर्ट ने सिविल कोर्ट जाने को कहा था

याचिका में यह भी बताया गया है कि पिछले साल 30 अप्रैल को मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै पीठ ने याचिका खारिज कर दी थी। हाईकोर्ट का मानना था कि इस तरह के मुद्दे का समाधान सिविल अदालत में हो सकता है और अंतिम निर्णय राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को करना चाहिए। हालांकि, हाईकोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा था कि यदि जाति के नाम पर कोई कथित भेदभाव होता है और वह एक सार्वजनिक मुद्दा बन जाता है तो संबंधित अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि जाति के नाम पर ऐसा कोई भेदभाव न हो।

गौरतलब है कि याचिकाकर्ताओं के आवेदन पर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने राज्य पुलिस को पत्र भेजा था, जिन्होंने जांच कर आयोग को रिपोर्ट भेजी थी। यह जांच रिपोर्ट हाईकोर्ट में भी दायर की गई थी, जिसमें पुलिस ने भेदभाव होने की बात से इंकार किया था।

अब सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर बहस जारी है, और यह देखना होगा कि धर्म परिवर्तन के बाद भी जातिगत भेदभाव का सामना कर रहे इन दलित ईसाइयों को न्याय मिल पाता है या नहीं। यह मामला देश में सामाजिक समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के जटिल पहलुओं को उजागर करता है।


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