उपराष्ट्रपति धनखड़ का आपातकाल पर हमला: 'संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द नासूर'

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों को 'नासूर' बताया। उन्होंने कहा कि यह भारतीय संविधान की आत्मा के साथ धोखा है और डॉ. अंबेडकर के सपनों के खिलाफ है। उन्होंने न्यायपालिका के विचारों का भी उल्लेख किया और लोकतंत्र के मंदिरों में हो रहे व्यवधान पर चिंता जताई।

उपराष्ट्रपति धनखड़ का आपातकाल पर हमला: 'संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द नासूर'
जगदीप धनखड़. (फाइल फोटो)

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों पर तीखा हमला बोला है। उन्होंने इन शब्दों को 'नासूर' करार दिया और कहा कि ये भारतीय संविधान की आत्मा के साथ 'धोखा' हैं। धनखड़ ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के संदेशों की प्रासंगिकता पर भी जोर दिया और लोकतंत्र के मंदिरों में हो रहे 'अपवित्रीकरण' पर चिंता व्यक्त की।


प्रस्तावना में बदलाव पर उपराष्ट्रपति की आपत्ति

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा, "आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में जो शब्द जोड़े गए, वे नासूर हैं।" उन्होंने स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना के साथ कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह संविधान की आत्मा को बदलता है। धनखड़ के अनुसार, यह शब्दों का एक 'झटके में हुआ परिवर्तन' था, जो उस 'अंधकारपूर्ण काल' में किया गया, जो भारतीय संविधान के लिए सबसे कठिन समय था।

उन्होंने इसे 'अस्तित्वगत संकट' को जन्म देने वाला बदलाव बताते हुए कहा, "ये जोड़े गए शब्द नासूर हैं। ये उथल-पुथल पैदा करेंगे।" धनखड़ ने इसे संविधान निर्माताओं की मानसिकता के साथ धोखा और "हमारे हजारों वर्षों की सभ्यता की संपदा और ज्ञान का अपमान" बताया। उन्होंने इसे "सनातन की आत्मा का अपवित्र अनादर" भी कहा।


डॉ. अंबेडकर के संदेशों की प्रासंगिकता

डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों पर प्रकाश डालते हुए धनखड़ ने कहा, "डॉ. भीमराव अंबेडकर हमारे हृदय में हैं। वे हमारे विचारों पर छाए रहते हैं और आत्मा को छूते हैं।" उन्होंने जोर दिया कि अंबेडकर के संदेश आज भी अत्यंत प्रासंगिक हैं और 'घर-घर तक पहुंचने' चाहिए, विशेषकर बच्चों को इसकी जानकारी होनी चाहिए। उपराष्ट्रपति ने कहा कि अंबेडकर के संदेश सबसे पहले सांसदों, विधायकों और नीति निर्माताओं द्वारा सम्मानित और अनुकरण किए जाने चाहिए।

उन्होंने लोकतंत्र के मंदिरों में 'व्यवधान' और 'अपवित्रीकरण' पर चिंता व्यक्त करते हुए आत्मचिंतन का आह्वान किया।


प्रस्तावना: संविधान की आत्मा और अपरिवर्तनीयता

उपराष्ट्रपति ने 'हमारे संविधान की प्रस्तावना' को 'अत्यंत महत्वपूर्ण' बताते हुए कहा कि संविधान को प्रस्तावना में व्यक्त 'उच्च और महान दृष्टिकोण' के आलोक में पढ़ा और समझा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि आपातकाल में यह 'महान दृष्टिकोण बिगाड़ दिया गया' और 'डॉ. अंबेडकर की आत्मा को भी आहत किया गया'।

धनखड़ ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा कि प्रस्तावना, जिसे डॉ. अंबेडकर की प्रतिभा ने गढ़ा और संविधान सभा ने स्वीकार किया, उसकी आत्मा के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए थी। उन्होंने इसे 'हमारी हजारों वर्षों की सभ्यता की भावना के भी विरुद्ध' बताया, जहाँ सनातन दर्शन ने ही विमर्श को संचालित किया।


न्यायपालिका और प्रस्तावना की व्याख्या

न्यायपालिका को 'हमारे लोकतंत्र का एक अहम स्तंभ' बताते हुए धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट की दो बड़ी पीठों (11 न्यायाधीशों की आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य और 13 न्यायाधीशों की केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य) द्वारा प्रस्तावना की व्याख्या का उल्लेख किया।

  • न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला ने कहा, "हमारे संविधान की प्रस्तावना में इसके आदर्शों और आकांक्षाओं का सार है। यह केवल शब्दों का प्रदर्शन नहीं, बल्कि उन उद्देश्यों को समाहित करती है जिन्हें संविधान प्राप्त करना चाहता है।"

  • न्यायमूर्ति हेगड़े और न्यायमूर्ति मुखर्जी ने कहा, "संविधान की प्रस्तावना, संविधान की आत्मा के समान है, और यह अपरिवर्तनीय है, क्योंकि यह उन मूलभूत मूल्यों और दर्शन को समाहित करती है जिस पर पूरा संविधान आधारित है।" उन्होंने इस बदलाव को 'उस इमारत के लिए किसी भूकंप से कम नहीं' बताया, 'जिसकी नींव को उसकी ऊपरी मंजिल से बदला जा रहा है।'

  • न्यायमूर्ति शेलट और न्यायमूर्ति ग्रोवर ने कहा, "संविधान की प्रस्तावना केवल प्रस्तावना नहीं, बल्कि संविधान का भाग है और संविधान निर्माताओं की मंशा को समझने की कुंजी है।" धनखड़ ने कहा कि ऐसे 'गंभीर कार्य, जिसे बदला नहीं जाना चाहिए था, उसे हल्के, मजाकिया और मर्यादा विहीन तरीके से बदल दिया गया।'


अंबेडकर की दूरदर्शिता और राष्ट्र के प्रति निष्ठा

डॉ. अंबेडकर को एक 'दूरदर्शी नेता', 'महामानव' और 'राष्ट्रपुरुष' बताते हुए उपराष्ट्रपति ने उनके संघर्षमय जीवन को याद किया। उन्होंने सवाल उठाया कि अंबेडकर को मरणोपरांत भारत रत्न क्यों दिया गया और इसमें इतना विलंब क्यों हुआ।

उन्होंने अंबेडकर के 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए अंतिम संबोधन के कुछ महत्वपूर्ण अंश साझा किए:

  • "मैं नहीं चाहता कि एक भारतीय के रूप में हमारी निष्ठा पर किसी प्रतिस्पर्धी निष्ठा का असर पड़े चाहे वह धर्म से हो, संस्कृति से हो या भाषा से। मैं चाहता हूं कि हर कोई पहले भारतीय हो। अंत में भारतीय हो और केवल भारतीय हो।"

  • "मुझे सबसे अधिक पीड़ा इस बात की है कि भारत ने एक बार पहले भी अपनी स्वतंत्रता खोई थी, और वह अपने ही कुछ लोगों की बेवफाई और विश्वासघात से खोई थी। क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?"

  • "यह विचार मुझे अत्यंत व्याकुल करता है। यह चिंता और गहरी हो जाती है जब मैं इस सच्चाई को महसूस करता हूं कि जाति और पंथ के पुराने दुश्मनों के साथ-साथ अब हमारे पास अनेक राजनीतिक दल होंगे, जिनकी विचारधाराएं परस्पर विरोधी होंगी। क्या भारतीय अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? या देश को पंथ से ऊपर? मुझे नहीं पता, लेकिन इतना निश्चित है कि अगर दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे, तो हमारी स्वतंत्रता दोबारा खतरे में पड़ जाएगी और संभवत सदा के लिए समाप्त हो जाएगी।"

धनखड़ ने सभी से इस आशंका से हर क्षण सतर्क रहने और 'अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा अपनी अंतिम सांस तक करने' का निश्चय करने का आह्वान किया।

इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है?