सायरन बजते ही बत्ती गुल, खिड़कियों पर कंबल, बल्ब पर अखबार... मॉकड्रिल ने ताजा कर दीं 1971 की यादें

मध्य प्रदेश में मॉक ड्रिल ने ताजा कर दीं 1971 के ब्लैकआउट की यादें! रेडियो पर ऐलान होते ही बत्ती बंद, खिड़कियों पर कंबल, बल्ब पर अखबार लपेटते थे लोग।

सायरन बजते ही बत्ती गुल, खिड़कियों पर कंबल, बल्ब पर अखबार... मॉकड्रिल ने ताजा कर दीं 1971 की यादें

                                                                               मॉकड्रिल से ताजा हो गईं 1971 की यादें

भोपाल/इंदौर/ग्वालियर: मध्य प्रदेश के कई जिलों में हाल ही में आयोजित हुई मॉक ड्रिल ने दशकों पुरानी यादों को ताजा कर दिया। यह मॉक ड्रिल, जिसका उद्देश्य युद्ध जैसी आपातकालीन स्थितियों में नागरिक सुरक्षा की तैयारियों का जायजा लेना था, हूबहू 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान हुए ब्लैकआउट की याद दिला गई। उस दौर के लोगों ने बताया कि कैसे रेडियो पर ऐलान होते ही पूरे शहर में अंधेरा छा जाता था, लोग अपनी खिड़कियों को कंबल से ढक लेते थे और बल्बों पर अखबार लपेट देते थे ताकि जरा भी रोशनी बाहर न जाए।

देश के 300 जिलों के साथ मध्य प्रदेश के पांच जिलों में भी यह मॉक ड्रिल आयोजित की गई। इसका मकसद किसी भी अप्रिय स्थिति, खासकर युद्ध जैसी परिस्थितियों से निपटने के लिए नागरिकों को प्रशिक्षित करना और सुरक्षा व्यवस्था को परखना था। ड्रिल के दौरान शाम को सायरन बजाया गया और फिर कृत्रिम ब्लैकआउट किया गया। इस दौरान लोगों ने अपने घरों में मोमबत्ती और लालटेन का इस्तेमाल किया, ठीक उसी तरह जैसे 1971 के युद्ध के समय किया गया था।

1971 का ब्लैकआउट: एक भूली हुई याद:

भारत ने 1971 के भारत-पाक युद्ध और उससे पहले 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान भी ब्लैकआउट का अनुभव किया था। इंदौर के रहने वाले 70 वर्षीय एक बुजुर्ग, जो उस दौर के साक्षी हैं, ने उन दिनों की यादें साझा करते हुए बताया, "मैं उस समय आठवीं कक्षा का छात्र था और चिमनबाग चौराहा स्थित महाराजा शिवाजीराव हायर सेकंडरी स्कूल में पढ़ता था। ब्लैकआउट से जुड़ी बहुत सी बातें मुझे आज भी अच्छी तरह याद हैं। उस दौर में सड़कों पर आज की तरह इतनी गाड़ियां नहीं होती थीं। गिनी-चुनी कारें थीं, जैसे एंबेसेडर और फिएट। पुलिस के अधिकारी ब्लैकआउट का सख्ती से पालन करवाने के लिए सड़कों पर उतरते थे। अधिकारी बुलेट पर होते थे, जबकि आरक्षक और एसआई साइकिल पर गश्त करते थे। घरों में लोग चिमनी और लालटेन जलाकर रखते थे। दुकानदार अपनी दुकानों पर लगे बल्बों को ढकने के लिए उन पर अखबार का कागज लपेट दिया करते थे।"

रेडियो था सूचना का एकमात्र जरिया:

उस समय रेडियो ही सूचना का सबसे महत्वपूर्ण साधन था। बुजुर्ग बताते हैं कि जैसे ही रेडियो पर ब्लैकआउट का ऐलान होता था, गलियों में सन्नाटा और अंधेरा छा जाता था। शाम ढलते ही आकाशवाणी पर आवाज गूंजती थी, 'ब्लैकआउट लागू कर दिया गया है, कृपया सभी लाइटें बुझा दें।' और पल भर में पूरा मोहल्ला अंधेरे में डूब जाता था। रेडियो की आवाज सुनकर बच्चे भी अपनी शरारतें भूलकर चुप हो जाते थे। ब्लैकआउट से पहले पुलिस के जवान तांगे पर सवार होकर पूरे शहर में इसका ऐलान करते थे। उस समय घरों की लाइटें देशभक्ति का प्रतीक बन गई थीं। हर घर में खिड़कियों पर गीले बोरे या मोटे कंबल लटका दिए जाते थे, ताकि कहीं से भी जरा सी भी रोशनी बाहर न झांके। लोग टॉर्च तक का इस्तेमाल करने से बचते थे और अगर लालटेन जलानी भी पड़ती थी, तो उसे भी अखबार से ढक दिया जाता था। बुजुर्ग बताते हैं कि उस समय डर तो लगता था, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा गर्व होता था कि हम देश के लिए कुछ कर रहे हैं। वे एक मार्मिक किस्सा साझा करते हुए बताते हैं कि अगर गलती से किसी घर की लाइट जल जाती थी, तो पड़ोसी तुरंत जाकर उन्हें याद दिलाते थे कि 'भाईसाहब, ब्लैकआउट चल रहा है।' उस दौर में न कोई शिकायत थी, न कोई बहस, बस आपसी समझदारी और सहयोग का अद्भुत माहौल था।

घरों में जलती थी चिमनी:

ग्वालियर के एक अन्य बुजुर्ग भी 1971 के ब्लैकआउट के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि दिसंबर की शुरुआत में जब रेडियो पर युद्ध की खबरें आने लगीं, तो उसी दौरान हर शाम 7 बजे ब्लैकआउट की घोषणा होती थी। जैसे ही शाम के सात बजते थे, एक सायरन बजता था, जो अलर्ट का संकेत होता था। सायरन बजते ही वे पूरे घर की खिड़कियां और दरवाजे अंदर से बंद कर लेते थे। उस समय घरों में आज की तरह हर कमरे में बिजली नहीं होती थी, मुश्किल से एक या दो बल्ब होते थे, जिन्हें तुरंत बंद कर दिया जाता था। घर के अंदर रोशनी के लिए छोटी सी चिमनी जलाई जाती थी, लेकिन यह भी सुनिश्चित किया जाता था कि उसकी रोशनी घर के बाहर बिल्कुल न जाए। यह सिलसिला लगभग बीस दिनों तक चला था।

हाल ही में हुई मॉक ड्रिल ने उन बुजुर्गों के दिलों में 1971 की उन यादों को फिर से जीवंत कर दिया, जब देश एक दुश्मन के खिलाफ एकजुट खड़ा था और नागरिक सुरक्षा हर किसी की प्राथमिकता थी। यह ड्रिल न केवल आपातकालीन तैयारियों का जायजा लेने का एक महत्वपूर्ण कदम था, बल्कि इसने उस दौर के त्याग और देशभक्ति की भावना को भी एक बार फिर महसूस कराया।