सिनेमा में नेहरू और इंदिरा: क्यों नहीं बन पाई 'नायक' नेहरू पर कोई फिल्म?
पंडित जवाहरलाल नेहरू के फिल्मी हस्तियों से गहरे संबंध होने के बावजूद, सिनेमा में उनका चित्रण इंदिरा गांधी जैसा प्रभावी क्यों नहीं हुआ? यह लेख बताता है कि कैसे 'बॉबी' से लेकर 'इमरजेंसी' तक, इंदिरा गांधी ने फिल्मों में महिला सशक्तिकरण और राजनीतिक घटनाक्रमों को प्रभावित किया, जबकि नेहरू बड़े पर्दे पर नायक नहीं बन पाए।

पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू एक शौकीन और आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति थे। तमाम फिल्म कलाकारों, निर्माताओं-निर्देशकों, शायरों-लेखकों से उनके गहरे ताल्लुक रहे। कुछेक विवादों को छोड़ दें तो ज़्यादातर फिल्मी सितारे उनको खूब पसंद करते थे और अपनी-अपनी फिल्मों में नेहरूवियन सोच और फलसफे को शामिल भी करते थे।
इसके विपरीत, इंदिरा गांधी को सिनेमा के कलाकारों से अपने पिता जैसा गहरा लगाव नहीं था। केवल राज्यसभा, लोकसभा में आने वाले फिल्मी कलाकार से उनके बहुत नज़दीकी संबंध थे। आपातकाल में तो बहुत से फिल्मी सितारे इंदिरा गांधी के विरोधी भी बन गए। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि सिनेमा में नेहरू के किरदारों का वैसा चित्रण नहीं हुआ जैसा कि इंदिरा गांधी का। नेहरू को किसी भी फिल्म में नायक की तरह पेश नहीं किया गया, जैसा कि महात्मा गांधी को या इंदिरा गांधी को किया गया।
इंदिरा गांधी का सिनेमा पर प्रभाव और चित्रण
हालांकि नेहरू की तरह इंदिरा गांधी भी सिनेमा में आधुनिक और खासतौर पर महिला सशक्तिकरण के विचारों को प्रभावित करती रही हैं। सन् 1973 की फिल्म 'बॉबी' में सबसे पहले कोई नायिका इक्कीसवीं सदी की बात करती है। डिंपल कपाड़िया एक सीन में कहती हैं, "पिक्चर देखने मैं अकेले जा सकती हूं। मैं इक्कीसवीं सदी की लड़की हूं।" यह प्रसंग इंदिरा गांधी के महिला सशक्तिकरण का प्रभाव था। लेकिन आपातकाल के चलते विरोधियों ने जब उन्हें भारतीय राजनीति की नायिका से खलनायिका बना दिया, तब फिल्मों में उनके व्यक्तित्व के चित्रण का मिज़ाज ही बदल गया।
1971 की लड़ाई और आपातकाल पर फिल्में
जब-जब पर्दे पर 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेश का निर्माण और आपातकाल की कहानी दिखाई गई, इंदिरा गांधी को दिखाना लाज़मी समझा गया। सबसे हाल में आज की सबसे चर्चित अभिनेत्री और लोकसभा सांसद कंगना रनौत ने तो इंदिरा गांधी पर बायोपिक ही बना दी। इसकी कहानी भले ही इंदिरा के राजनीतिक जीवन के प्रमुख राजनीतिक घटनाक्रमों पर आधारित थी, लेकिन फिल्म का टाइटल 'इमरजेंसी' रखा गया। इस पर सवाल भी उठे थे, सवाल नज़रिए और इरादों को लेकर भी उठा।
वैसे अकेले कंगना रनौत ही नहीं हैं, जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल और इमरजेंसी को अपनी फिल्म का विषय बनाया है। पिछले करीब दस साल में ऐसी अनेक फिल्में आई हैं, जिसमें इंदिरा और आपातकाल का विशेष तौर पर चित्रण हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आपातकाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय था। इस दौरान नागरिक अधिकारों का हनन हुआ, प्रदर्शनकारी विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं, मीडिया और सिनेमा की दुनिया भी इससे प्रभावित हुई। कई फिल्म कलाकार निशाने पर आए और उनके गीतों तथा फिल्मों के प्रसारण पर बैन लगाया गया।
इंदिरा गांधी से जुड़ी प्रमुख फिल्में
इंदिरा गांधी की शख्सियत और उनकी राजनीति पर फिल्मों में तंज कसने या सियासी निशाना साधने की शुरुआत आपातकाल के दौर में ही हो गई थी। आपातकाल से पहले ही मनोज कुमार की 'रोटी, कपड़ा और मकान' आ चुकी थी, जिसमें भ्रष्टाचार, महंगाई, जमाखोरी और कालाबाज़ारी का मुद्दा प्रमुख था। वहीं, 1975 में हिंदी के प्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर के उपन्यास 'काली आंधी' पर गुलज़ार ने 'आंधी' बनाई थी। हालांकि इसकी कहानी अलग थी, लेकिन जिस समय यह रिलीज़ हुई और जिस प्रकार एक महिला नेता को केंद्रीय भूमिका में प्रमुखता से दिखाया गया, उसके गेटअप, चाल-ढाल, पोषाक आदि में इंदिरा की छवि देखी जाने लगी। फिल्म में सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी का प्रतिरूप समझा गया, इसी वजह से इस फिल्म पर प्रतिबंध भी लगा था, जिसे बाद में हटा लिया गया।
इसके बाद अमृत नाहटा ने 'किस्सा कुर्सी का' तो वहीं आईएस जौहर ने 'नसबंदी' बनाकर करारा तंज कसा। 'किस्सा कुर्सी का' में इंदिरा गांधी और आपातकाल पर कटाक्ष था तो 'नसबंदी' में संजय गांधी पर। इसके बाद की फिल्मों में भ्रष्टाचार और महंगाई का मुद्दा तेज़ी से उभरा। इस बहाने तत्कालीन सत्ता और सरकार से सीधे सवाल होने लगे। लेकिन लंबे समय तक हिंदी फिल्मों से ये दोनों मुद्दे गायब रहे।
इसकी दोबारा शुरुआत होती है साल 2017 में आई मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदु सरकार' से। यह एक पॉलिटिकल फैंटेसी ड्रामा थी। जब यह फिल्म आई तो पहली नज़र में इंदु सरकार मतलब इंदिरा सरकार लगा। लेकिन फिल्म देखने के बाद पता चला इसमें किरदार का नाम है- इंदु सरकार, जिसे कीर्ति कुलहरी ने निभाया था। हालांकि फैशन, कॉरपोरेट वाले मधुर भंडारकर की यह सबसे खराब फिल्म मानी गई। उसमें आपातकाल और तब के राजनीतिक परिवेश का चित्रण किया गया था। इंदिरा के साथ-साथ संजय भी थे, नील नितिन मुकेश संजय गांधी बने थे।
इसके बाद इंदिरा को किसी न किसी तरह से कहानी के केंद्र में रखकर बनने वाली फिल्मों की लाइन लग गई:
- अनुपम खेर की 'दी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर'
- अक्षय कुमार की 'बेलबॉटम': इस फिल्म में लारा दत्ता ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई थी। इसकी कहानी में 1984 में भारतीय विमान के अपहरण कांड को दिखाया गया था, जहाँ भारतीय जेलों में बंद आतंकियों को छोड़ने के बदले विमान का अपहरण किया गया था।
- अजय देवगन की 'भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया': इसमें 1971 की कहानी दिखाई गई थी, जब बांग्लादेश विभाजन से पाकिस्तान बौखला चुका था। भुज एयरबेस पर पाकिस्तानी हमले के बाद इंदिरा को इसमें बहुत ही विवश दिखाया गया है।
- विकी कौशल अभिनीत जनरल सैम मानेक शॉ की बायोपिक 'सैम बहादुर': मेघना गुलज़ार की यह फिल्म भी 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण की पृष्ठभूमि पर बनी थी। इसमें सैम मानेक शॉ और इंदिरा के बीच युद्ध को लेकर मतभेद पर भी फोकस है, जहाँ सैम शॉ के आगे इंदिरा गांधी कमज़ोर सी दिखती हैं।
- श्याम बेनेगल की 'मुजीब': शेख मुजीबुर्रहमान की इस बायोपिक में इंदिरा गांधी के रोल का किसी से अभिनय नहीं करवाया गया। श्याम बेनेगल ने फिल्म में इंदिरा गांधी के एक इंटरव्यू का हिस्सा दिखाना ही ज़्यादा मुनासिब समझा।
- विद्युत जामवाल की 'IB71': इस फिल्म में एक विमान अपहरण की कहानी का आधार बनाया गया था, लेकिन दिलचस्प बात ये कि इंदिरा गांधी के शासनकाल की कहानी में इंदिरा गांधी को ही नहीं दिखाया गया। तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम ही वहां सारे फैसले लेते दिखते हैं।
इस तरह, इंदिरा गांधी, आपातकाल और 71 के भारत-पाकिस्तान युद्ध पर जितनी फिल्में बनीं, उतना ही विविध नज़रिया भी देखने को मिला है।