Balaghat News : बालाघाट में 'कुबेर का खजाना' बना 'गोरगा' पेड़ आदिवासी एक दिन में निकाल रहे 50 लीटर रस, समर सीजन में बन रहे लखपति
मध्य प्रदेश के बालाघाट में गर्मी के मौसम में 'गोरगा' (सल्फी) पेड़ आदिवासियों के लिए 'कुबेर का खजाना' साबित हो रहा है। इस ताड़ प्रजाति के पेड़ से एक दिन में करीब 40-50 लीटर रस निकलता है, जिससे आदिवासी अच्छी कमाई कर लखपति बन रहे हैं। यह रस गर्मी में शरीर को ठंडा रखने और पाचन में सहायक होता है।

Balaghat News Today : इन दिनों बालाघाट के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में ताड़ी और सल्फी (जिसे आदिवासी 'गोरगा' भी कहते हैं) का व्यवसाय पूरे ज़ोरों पर है। ये पेड़ यहाँ के आदिवासियों के लिए सचमुच 'कुबेर का खजाना' साबित हो रहे हैं, क्योंकि इनसे निकलने वाला रस उन्हें गर्मी के मौसम में लाखों की कमाई करा रहा है।
ताड़ी, ताड़ के पेड़ से निकलने वाला एक प्राकृतिक पेय पदार्थ है, जिसका उपयोग मुख्य रूप से गर्मी में शरीर को ठंडा रखने के लिए किया जाता है। बालाघाट जिले में ताड़ के अलावा 'सल्फी' का पेड़ भी पाया जाता है, जो ताड़ प्रजाति का ही है और वैज्ञानिक रूप से इसे केरियोटा यूरेनस (Caryota urens) कहा जाता है।
गोरगा से रस निकालना चुनौतीपूर्ण कार्य
बालाघाट के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र परसवाड़ा में इन दिनों ताड़ और गोरगा के पेड़ों से रस निकालकर बेचने का काम बड़े पैमाने पर चल रहा है। इन गगनचुंबी वृक्षों से रस निकालना किसी चुनौती से कम नहीं होता। ग्राम तिरगवां निवासी छत्तर सिंह धुर्वे ने बताया कि "पूरे क्षेत्र में उनके अलावा और कोई इन पेड़ों से रस निकालने की विधि नहीं जानता। इस वजह से आसपास के गांवों में रस निकालने का काम वही करते हैं।" छत्तर सिंह ने यह भी बताया कि उन्होंने करीब 20 साल पहले महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले से यह पेड़ लाकर लगाया था, जिसके बाद उसके बीजों से और पेड़ तैयार हुए।
एक 'पोंगा' से 50 लीटर तक रस, लाखों की कमाई
गोरगा और ताड़ से रस निकालने की प्रक्रिया के बारे में छत्तर सिंह ने बताया कि "सबसे बड़ी चुनौती इन पेड़ों पर चढ़ने की होती है।" ताड़ और गोरगा के पेड़ से निकलने वाले गुच्छेदार फल जिसे 'पोंगा' कहा जाता है, उसे सावधानीपूर्वक काटकर उसमें मटका या कोई बर्तन बांधना होता है। उस बर्तन में काटे गए हिस्से से दिन-रात रस टपकता है। छत्तर सिंह के अनुसार, "एक पोंगा से करीब 40 से 50 लीटर रस प्रतिदिन निकलता है।" हालांकि, ज्यादा पुराने पेड़ों में यह मात्रा कम हो जाती है।