वाराणसी के रंग में रंगी 'भूल चूक माफ', राजकुमार-वामिका की जोड़ी ने जीता दिल

राजकुमार राव और वामिका गब्बी की फिल्म 'भूल चूक माफ' वाराणसी के मनोरम पृष्ठभूमि पर आधारित एक रोमांटिक कॉमेडी ड्रामा है, जो मानवीय भावनाओं और सामाजिक संदेशों को खूबसूरती से पिरोती है। फिल्म रिश्वतखोरी और बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दों पर भी कटाक्ष करती है।

वाराणसी के रंग में रंगी 'भूल चूक माफ', राजकुमार-वामिका की जोड़ी ने जीता दिल

राजकुमार राव और वामिका गब्बी अभिनीत नई फिल्म 'भूल चूक माफ' थोड़ी देरी से देखने को मिली, इसलिए इस पर लिखना भी विलंबित हुआ – जिसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। अन्यथा, इस पर पहले ही लिखता। वास्तव में, भूल चूक हुई, लिहाज़ा माफी तो बनती है। यों पूरी फिल्म की कहानी भी इसी भाव को व्यक्त करती है। मुख्य किरदार, यानी राजकुमार राव, को लंबे समय के बाद यह एहसास होता है कि नेक काम करने और गलती से भी किसी का दिल न दुखाने में ही सार है। दिल दुखाएंगे तो मनोवांछित फल पाने में बाधा आएगी, मन्नत पूरी होने में भी संकट आएगा, और मन्नत पूरी न होने पर भटकाव से परेशान होंगे। फिल्म में रंजन तिवारी के साथ ऐसा होता भी है।

दरअसल, करण शर्मा निर्देशित 'भूल चूक माफ' की कहानी में राजकुमार राव के किरदार का नाम रंजन तिवारी है, जिसे तितली मिश्रा, यानी वामिका गब्बी, से प्यार हो जाता है। दोनों शादी करना चाहते हैं, लेकिन तारीख पक्की होकर भी शादी में बाधा ही बाधा है। और इसकी वजह हामिद अंसारी नाम का शख्स है। ऐसा क्यों? यकीन मानिए, इस पहेली को समझने में ही इस फिल्म का सारा सार छिपा है। हामिद अंसारी कौन है, कहाँ से आया है जो रंजन और तितली की शादी में रोड़ा बना है? सबसे पहले इसे जानते हैं।

इंसानी जज्बातों से जुड़ी फिल्म की कहानी:

वास्तव में, अंसारी-तिवारी का पूरा मसला नौकरी, रोजगार, खेती, किसानी, सिंचाई, खुशहाली, जरूरतमंदों को मौके, इंसानियत, भाईचारा और सामाजिकता जैसे जज्बातों से जुड़ा है। कहानी दो प्रेमी जोड़े के खिलंदड़पने और उनके परिवारों के बीच नोंक-झोंक से शुरू होकर जैसे इन मुद्दों से जुड़ जाती है, पता ही नहीं चलता। फिल्म अपने ज़ॉनर में रोमांटिक कॉमेडी ड्रामा है, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, जज्बातों से जुड़ती जाती है।

हंसती-खेलती, लड़ती-झगड़ती प्रेम कहानी के बीच यह दो ऐसे उम्मीदवारों की भी कहानी बन जाती है, जहाँ एक योग्य पात्र है जो जरूरतमंद भी है, लेकिन दूसरा किरदार ऐसा है जिसने रिश्वत देकर नौकरी हासिल की है। यही वह मर्म है जिसकी वजह से रंजन तिवारी दुविधा में फंसा है। उसे बार-बार यह महसूस होता रहता है कि शादी की तारीख पक्की होकर भी उसकी शादी नहीं हो पा रही है। कहीं कुछ अटका हुआ है।

जब रंजन तिवारी को मिले हामिद अंसारी:

अपनी दुविधा और दुश्वारियों से परेशान रंजन तिवारी इसके बाद गंगा में कूदने का प्लान बनाता है, जहाँ उसे मिलता है एक और परेशान शख्स जिसका नाम है – हामिद अंसारी। उससे पूछताछ करने पर पता चलता है कि वह शख्स सरकारी नौकरी न मिलने से परेशान है। रंजन से वह बताता है – उसकी भी वही समस्या है जो आधे देश की है, यानी बेरोजगारी। वह कहता है पिछले दस साल से उसके गाँव के किसान खेती के लिए परेशान हैं। हामिद कहता जाता है – गाँव की, अपने समाज की हालत सुधारने के लिए ही उसने सिंचाई विभाग में नौकरी के लिए परीक्षा दी। पास भी हो गया, लेकिन फिर भी उसे नौकरी नहीं मिली। ऐसे में जीकर अब क्या करेंगे। दूसरी तरफ रंजन तिवारी है, जिसने मनपसंद प्रेमिका से शादी करने के लिए रिश्वत देकर नौकरी तो हासिल कर ली, लेकिन दुविधा गले की फांस बनी है। इसी बीच रंजन कहता है – अच्छा भइया, आजम से अंसारी-तिवारी भाई-भाई, मिलकर इस समस्या को दूर करेंगे।

जब रंजन तिवारी को हामिद अंसारी से होती है ग्लानि:

इसके बाद रंजन उसे भगवान दास, यानी संजय मिश्रा, के पास लेकर जाता है, जिसे घूस देकर उसे सिंचाई विभाग में नौकरी मिली है। लेकिन जब उसे पता चलता है कि इस नौकरी का वास्तविक हकदार तो हामिद अंसारी था, रिश्वत की बदौलत उसे यह नौकरी दे दी गई है, तब उसे आत्मग्लानि होती है और यह भी समझ आता है कि आखिर उसकी बाधा क्या थी? इसके बाद फिल्म में क्या होता है, यह जानने के लिए पूरी फिल्म देखनी चाहिए। अगर आप थिएटर में इसे नहीं देख सके तो ओटीटी पर रिलीज होने का इंतजार करें और आगे की कहानी जानें।

वाराणसी का रंगीन और धार्मिक बैकग्राउंड अनोखा:

गौरतलब है कि इस फिल्म की शूटिंग वाराणसी में हुई है, कहानी भी वाराणसी की है। ऐसे में बार-बार भोले शंकर, गंगा के घाट, नाव, पंडे, पुजारी, गौ-माता, गाय के गोबर, बीड़ी-चिलम, धुनी रमाये साधु-संत, पतली गलियों की दुकानें और फुरसत की मस्ती में जीने वालों की मदमस्त टोलियाँ इसके बैकग्राउंड का हिस्सा हैं। यह बैकग्राउंड फिल्म को मनोरंजक बनाता है और दर्शकों के मिजाज को भी खुश रखता है। इसी खुशमिजाजी में फिल्म कुछ बड़ी बातें कह जाती है – इस समाज में सबके सब अपने लिए सोचते हैं, बिरले ही हैं जो दूसरों के लिए सोच पाते हैं। और जो दूसरे के लिए सोच लेता है, नेक कार्य कर लेता है, वही इतिहास रचता है। दूसरी अहम बात यह कि इंसान को हमेशा अपने कर्म और प्रयत्न करते रहना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए – फिल्म गीता के इस संदेश के साथ खत्म होती है।

गंगा घाटों पर राजकुमार और वामिका की जोड़ी जमी:

'भूल चूक माफ' में सभी किरदारों ने अपने शानदार अभिनय से प्रभावित किया है। राजकुमार राव लगातार हास्य प्रधान फिल्में कर रहे हैं। वामिका गब्बी के साथ उनकी जोड़ी जमती है। वामिका और राव ने अपनी-अपनी एक्टिंग से वाकई दिल जीत लिया है। कई सीन में दोनों एक-दूसरे पर भारी पड़े हैं। वामिका गब्बी राजकुमार राव से कहीं कमतर नहीं लगीं। सरकारी नौकरी दिलाने वाले दलाल भगवान दास के रोल में संजय मिश्रा अपने चिर-परिचित अंदाज में हैं और आखिरी सीन में उनका भाषण दर्शकों की आँखें खोलने वाला है। उनके साथ सीमा पाहवा, रघुवीर यादव और जाकिर हुसैन भी अपने रोल के साथ न्याय करते हैं।

हालांकि, मैडॉक फिल्म्स की प्रस्तुति इस मूवी के डायरेक्टर करण शर्मा से मुझे कुछ और भी कहना है। फिल्म के मध्य में ’29 तारीख’ की पहेली को कुछ ज्यादा ही उलझा दिया गया है। इसे बेवजह लंबा और थोड़ा बोझिल भी बना दिया गया है। दर्शकों को यह खटकता है। इससे बचना चाहिए था। इसके बदले कुछ नये प्रसंगों को गढ़ना चाहिए था। यह फिल्म का सबसे बड़ा लोचा भी लगता है। इसे कम किया जाना चाहिए था। वहीं, तितली के किरदार की त्योरियाँ हमेशा क्यों चढ़ी रहती हैं, इसमें भी थोड़ी वैरायटी आनी चाहिए थी। बाकी गीत-संगीत में चुलबुलापन है जो इसके हास्य के पुट को खोलते हैं।