History of varanasi: वाराणसी: इतिहास के पन्नों से परे, एक शाश्वत नगरी
Varanasi ka vastavik itihas shayad itihaas ke pannon se bhi purana hai. Yeh vishwa ke pracheen nagron mein se ek mana jata hai. Kashi kaise basa, Varanasi naam kaise pada, iske paanch naam aur swatantrata andolan mein iska yogdaan jaaniye.

वाराणसी, यह नाम मात्र एक शहर का नहीं, बल्कि एक जीवंत इतिहास, गहरी आध्यात्मिकता और अविनाशी संस्कृति का प्रतीक है। इसकी वास्तविक आयु शायद इतिहास के उन पन्नों से भी परे है, जिन्हें हम आज पढ़ते हैं। किंवदंतियों और प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, वाराणसी विश्व के सबसे पुराने बसे हुए शहरों में से एक है, जिसकी जड़ें समय की गहराई में समाई हुई हैं।
पौराणिक कथाओं की मानें तो वाराणसी की नींव मनु से ग्यारहवीं पीढ़ी के राजा काश ने रखी थी, जिनके नाम पर इस नगरी को काशी कहा गया। वहीं, इसके 'वाराणसी' नामकरण के संबंध में अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि इसे वरुणावती नदी से जोड़ा गया था, और इसी 'वरुणा' शब्द से वाराणसी का उद्भव हुआ। एक अन्य मत यह भी है कि यह शहर वरुणा और अस्सी नामक दो नदियों के संगम के बीच स्थित होने के कारण इन दोनों नदियों के नामों को मिलाकर वाराणसी कहलाया।
काशी ने समय के साथ-साथ कई नामों को आत्मसात किया है। इसके पाँच प्रमुख नाम प्रचलित रहे हैं: काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनंद-कानन और श्मशान या महाश्मशान। पुराणों और अन्य प्राचीन ग्रंथों में इन सभी नामों का उल्लेख मिलता है, जो इस नगरी की बहुआयामी पहचान और आध्यात्मिक महत्व को दर्शाते हैं।
प्रागैतिहासिक काल की बात करें तो वाराणसी के आसपास के कुछ क्षेत्रों में प्रस्तर युग में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण पाए गए हैं। ये पुरातात्विक अवशेष इस बात का प्रमाण हैं कि वाराणसी और इसके आसपास प्रस्तर युग के मानव भी निवास करते थे। आर्यों के आगमन से पूर्व, यह क्षेत्र और इसके आसपास आदिवासी समुदायों का निवास स्थान था।
महाभारत के वनपर्व में पहली बार वाराणसी का एक तीर्थस्थल के रूप में उल्लेख मिलता है। ईसा की तीसरी सदी से आगे, वाराणसी का धार्मिक महत्व तेजी से बढ़ता गया। इसे शिवपुरी के रूप में प्रतिष्ठित किया गया, भगवान शिव की प्रिय नगरी। पुराणों में काशी के कई प्रतापी राजाओं का वर्णन मिलता है। इनमें से एक प्रमुख नाम धन्वंतरि के पौत्र दिवोदास का है। दिवोदास के शासनकाल के बाद, वाराणसी को कई बार विध्वंस का सामना करना पड़ा, लेकिन हर बार इसे नए सिरे से बसाया गया। अलर्क, जो दिवोदास के पौत्र थे, ने वाराणसी को पुनः स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म भी इसी पवित्र भूमि पर हुआ था, जिसने वाराणसी को जैन धर्मावलंबियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। खुदाई में मिले पुरातात्विक अवशेष इस बात की गवाही देते हैं कि ईसा पूर्व आठवीं सदी में इस ऊँचे स्थान पर व्यवस्थित बसाहट की शुरुआत हुई थी। राजघाट में उसी काल का मिट्टी का एक मजबूत तटबंध भी मिला है, जो प्राचीन काल में गंगा की बाढ़ से बस्ती को बचाने के लिए बनाया गया था, यह तत्कालीन उन्नत इंजीनियरिंग कौशल का अद्भुत उदाहरण है।
काशी प्राचीन काल से ही धार्मिक, सांस्कृतिक और कला का एक अद्वितीय केंद्र रही है। धर्म के क्षेत्र में, काशी हमेशा से ही हिंदुओं की आध्यात्मिक राजधानी रही है। इस प्राचीनतम नगरी के प्रति हिंदुओं की अटूट आस्था है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। संस्कृत के एक श्लोक में काशी की महिमा का गान करते हुए कहा गया है कि यह नगरी सभी दुखों को समाप्त करने वाली और मोक्ष प्रदान करने वाली है।
नैषधचरित के महान रचनाकार श्री हर्ष ने काशी की अद्वितीयता का वर्णन इस प्रकार किया है:
वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां तत्र स्थितिर्मखभुआं भवने निवासः। तत्तीर्यमुक्तवपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गात् परं पदमुपदेतु मुदेतुकीदृक।।
अर्थात्, काशी समग्र भारत के प्रतिरूप के रूप में इस पृथ्वी पर नहीं बसती, बल्कि यह उससे परे है। यहाँ यज्ञ करने वालों की स्थिति स्वर्ग में निवास करने जैसी है। इस तीर्थ में शरीर त्यागने वालों को निश्चित रूप से मुक्ति मिलती है, तो फिर जो स्वयं स्वर्ग से भी परे परम पद (मोक्ष) प्रदान करने में सक्षम है, उसकी महिमा का वर्णन कैसे किया जा सकता है?
इस प्रकार, काशी अलग-अलग कालों में समय के साथ विकसित होती गई, अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण रखते हुए।
बौद्धकाल में काशी:
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में, वाराणसी भारत के प्रमुख शहरों में से एक था और यह काशी साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित था। यह शहर व्यापार और वाणिज्य का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, जो दूर-दूर के क्षेत्रों से व्यापारियों और यात्रियों को आकर्षित करता था।
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी के पास स्थित सारनाथ में दिया था। यह घटना बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, और वाराणसी बौद्ध शिक्षा और दर्शन का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। मौर्य और गुप्त साम्राज्यों के दौरान, वाराणसी का महत्व धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में बना रहा।
ह्वेनसांग जैसे प्रसिद्ध चीनी तीर्थयात्रियों ने सातवीं शताब्दी ईस्वी में वाराणसी का दौरा किया और इसे एक समृद्ध और जीवंत शहर के रूप में वर्णित किया, जो शिक्षा, कला और धर्म का केंद्र था। उन्होंने यहां कई बौद्ध मठों और मंदिरों की उपस्थिति का भी उल्लेख किया, जो इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रभाव को दर्शाते हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन में काशी:
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में, वाराणसी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभरा। 1869 में, महान समाज सुधारक दयानंद सरस्वती काशी आए और उन्होंने पुरातनपंथी हिंदू आचार्यों माधव और आनंद के साथ कई महत्वपूर्ण विषयों पर शास्त्रार्थ किया, जिसने सामाजिक और धार्मिक सुधारों की दिशा में एक नई बहस को जन्म दिया।
1898 में, महान शिक्षाविद डॉ. भगवानदास ने एनी बेसेंट के साथ मिलकर सेंट्रल हिंदू स्कूल की नींव डाली, जो बाद में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना। यह संस्थान भारतीय शिक्षा और राष्ट्रवाद के प्रसार में एक मील का पत्थर साबित हुआ।
1905 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक महत्वपूर्ण अधिवेशन गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में काशी में आयोजित हुआ। इस अधिवेशन में लाजपत राय और मदनमोहन मालवीय जैसे प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं ने भाग लिया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति और दिशा पर महत्वपूर्ण चर्चाएं हुईं।
पूरे भारत की तरह, काशी के लोगों में भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गहरा गुस्सा था। अंग्रेजी सरकार के विरोध में, 1908 में काशी के युवा बंगाली छात्रों ने एक गुप्त क्लब शुरू किया, जिसे क्रांतिकारी पार्टी का सक्रिय सहयोग प्राप्त था। यह क्लब स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष की विचारधारा से प्रेरित था।
1909 में, भिनगा नरेश उदय प्रताप सिंह जू देव ने उदय प्रताप कॉलेज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्थानीय युवाओं को आधुनिक शिक्षा प्रदान करना था।
1916 में, पंडित मदन मोहन मालवीय ने काशी और दरभंगा के नरेशों, शिवप्रसाद गुप्त और डॉ. भगवानदास जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों के सहयोग से काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह विश्वविद्यालय भारतीय शिक्षा और संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र बनकर उभरा और इसने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले कई प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को तैयार किया।
1921 में, महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता के लिए असहयोग आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन में मदनमोहन मालवीय, शिवप्रसाद गुप्त और डॉ. भगवानदास जैसे नेताओं की सक्रिय उपस्थिति ने काशी विद्यापीठ को राजनीतिक कार्यकर्ताओं का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। यहां देश भर से स्वतंत्रता सेनानी एकत्रित होते थे और आंदोलन की रणनीतियों पर विचार-विमर्श करते थे।
1930 में, नमक सत्याग्रह में भी काशी ने सक्रिय रूप से भाग लिया। 10 अप्रैल को, कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने एक विशाल समूह के साथ मिलकर नमक बनाया और कई स्थानों पर जनसभाएं आयोजित की गईं। इस आंदोलन में बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया।
1932 में, गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद, काशी के लोगों में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आक्रोश और भी बढ़ गया। इस दौरान शहर में जमकर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए और नारे लगाए गए। जनाक्रोश को दबाने के लिए जिला प्रशासन ने वाराणसी कांग्रेस कमेटी को अवैध घोषित करते हुए धारा 144 लागू कर दी। कई स्थानों पर लाठीचार्ज भी हुआ और प्रशासन ने बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया, जिन पर बाद में मुकदमे भी चलाए गए।
1935 में हुए प्रांतीय चुनावों में, वाराणसी की 5 सीटों में से दो कांग्रेस, दो मुस्लिम लीग और एक निर्दलीय उम्मीदवार को मिलीं, जो उस समय के राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाती है।
1941 में, गांधीजी के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू हुआ। इस दौरान वाराणसी में लगभग 500 लोगों ने अपनी गिरफ्तारी दी, जो स्वतंत्रता के प्रति लोगों के दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।
1942 में, भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने के बाद, काशी के लोगों ने आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल कर शहर के मुख्य मार्गों से जुलूस निकाला। आंदोलन लगातार गहराता जा रहा था, और छात्रों ने कई सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा फहरा दिया। आंदोलन को रोकने के लिए पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की, जिसमें कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए। लेकिन दमन के बावजूद, आंदोलन की आग कम होने की बजाय और बढ़ती गई। इस दौरान, पुलिस ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की घेराबंदी कर दी और मालवीय जी और तत्कालीन कुलपति डॉ. राधाकृष्णन के बंगलों को घेर लिया। विश्वविद्यालय में महीनों तक पुलिस बल तैनात रहा। कई गांवों को जला दिया गया और ग्रामीणों की संपत्ति को जबरन छीन लिया गया।
15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति और रामनगर रियासत के विलय के बाद, वाराणसी जिला अपने वर्तमान स्वरूप में सामने आया, जो सदियों के संघर्ष और विकास की गाथा कहता है।