Delhi News : दिल्ली हाई कोर्ट में 'करेवा विवाह' से जन्मे बच्चों के संपत्ति अधिकार पर सुनवाई
दिल्ली हाई कोर्ट हरियाणा और पंजाब में प्रचलित 'करेवा विवाह' से जन्मे बच्चों के पारिवारिक संपत्ति में कानूनी अधिकार के मुद्दे पर विचार करेगा। यह मामला नजफगढ़ के एक व्यक्ति द्वारा अपने सौतेले भाई-बहनों के खिलाफ दायर याचिका से संबंधित है।

दिल्ली हाई कोर्ट जल्द ही एक महत्वपूर्ण सामाजिक और कानूनी प्रश्न की समीक्षा करेगा: क्या हरियाणा और पंजाब में प्रचलित 'करेवा विवाह' से जन्मे बच्चों को अपने पिता की पारिवारिक संपत्ति में कानूनी अधिकार मिलना चाहिए? यह जटिल मुद्दा तब सामने आया जब नजफगढ़ के एक व्यक्ति ने अपने सौतेले भाई-बहनों के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। याचिकाकर्ता का दावा है कि उसके पिता ने अपने भाई की विधवा से 'करेवा विवाह' किया था, जबकि वे पहले से ही विवाहित थे। इस विवाह से छह बच्चों का जन्म हुआ, जिन्हें अब याचिकाकर्ता पारिवारिक संपत्ति में हिस्सेदारी देने का विरोध कर रहा है।
क्या होता है 'करेवा विवाह'?
'करेवा' या 'चद्दर अंदाजी' विवाह मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित एक पारंपरिक सामाजिक प्रथा है। इसके तहत, किसी पुरुष की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी का विवाह उसके पति के भाई या किसी अन्य नजदीकी पुरुष रिश्तेदार से कराया जाता है। इस प्रथा का मुख्य उद्देश्य विधवा पत्नी को पारिवारिक सुरक्षा प्रदान करना और परिवार की जमीन या संपत्ति को परिवार के भीतर ही बनाए रखना होता है।
हालांकि, 'करेवा विवाह' को सामाजिक मान्यता प्राप्त है, लेकिन भारतीय विवाह प्रणाली में इसे कोई विशेष संवैधानिक मान्यता नहीं दी गई है। विवाह से संबंधित अधिनियमों में इस प्रकार के विवाह का सीधा उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी, कई अदालती मामलों में इसे मान्यता दी गई है, खासकर तब जब यह विवाह दोनों पक्षों की सहमति और सामाजिक रीति-रिवाजों के आधार पर संपन्न हुआ हो।
पूरा विवाद क्या है?
दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल याचिका के अनुसार, याचिकाकर्ता का दावा है कि उसके दादा सरदार सिंह की जमीन उनके तीन बेटों में समान रूप से विभाजित की गई थी। उनमें से एक भाई की मृत्यु के बाद, उसकी विधवा पत्नी ने दूसरे भाई से 'करेवा विवाह' कर लिया, जिससे छह बच्चे हुए। याचिकाकर्ता इस विवाह को असंवैधानिक मानते हुए इन बच्चों को 'अवैध' ठहरा रहा है और तर्क दे रहा है कि उन्हें संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने वर्ष 2013 में द्वारका की सिविल कोर्ट में एक याचिका दायर कर मांग की थी कि उसके सौतेले भाई-बहन संपत्ति का कोई भी हिस्सा न बेच सकें और न ही उसे किसी तीसरे पक्ष के नाम कर सकें। हालांकि, सिविल कोर्ट ने याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया कि मामला समय सीमा (लिमिटेशन) से बाहर है, क्योंकि विवादित बच्चे अब वयस्क हो चुके हैं। अब यह मामला दिल्ली हाई कोर्ट पहुंच गया है, जहां इस पर 4 अगस्त को सुनवाई निर्धारित है।
कानूनी पहल और पुराने अदालती फैसलों का आधार:
हालांकि, इस प्रकार के मामलों पर पहले भी कई बार अदालतों में विचार हो चुका है। वर्ष 1975 में दिल्ली हाई कोर्ट ने 'पूरन बनाम अंगूरी' के मामले की सुनवाई करते हुए अपने फैसले में कहा था कि जब तक पहली पत्नी जीवित है, तब तक पति किसी अन्य महिला से विवाह नहीं कर सकता, भले ही वह 'करेवा' परंपरा के तहत हो। इस फैसले में स्पष्ट किया गया था कि 'करेवा विवाह' भी तभी वैध माना जाएगा जब विवाह के समय दोनों पक्षों के पहले जीवनसाथी जीवित न हों।
वहीं, पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने 'भोलाराम बनाम मुकेश देवी' और 'सुमन बनाम स्टेट' जैसे मामलों में माना था कि 'करेवा विवाह' सामाजिक दृष्टिकोण से मान्य हो सकता है, लेकिन यह कानूनी अधिकारों जैसे पेंशन, विरासत आदि पर स्वतः अधिकार प्रदान नहीं करता है।
दिल्ली हाई कोर्ट के सामने अहम सवाल:
अब दिल्ली हाई कोर्ट के सामने महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या एक ऐसे विवाह से जन्मे बच्चे, जो उस समय हुआ जब पुरुष पहले से विवाहित था, पारिवारिक संपत्ति में अधिकार प्राप्त कर सकता है? क्या ऐसे विवाह को कानूनी रूप से वैध माना जाएगा, भले ही वह सामाजिक रूप से स्वीकार्य रहा हो? यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि 4 अगस्त को दिल्ली हाई कोर्ट इस संवेदनशील मामले में क्या आदेश जारी करता है, जो हरियाणा और पंजाब के कई परिवारों के भविष्य को प्रभावित कर सकता है।