सऊदी अरब की अमेरिका से साध: बाइडेन से दूरी, ट्रंप से यारी - भू-राजनीतिक चाल या साझा हित?
जानें क्यों सऊदी अरब के रिश्ते डोनाल्ड ट्रंप के साथ इतने गर्म हैं जबकि बाइडेन के कार्यकाल में खटास आई। क्या चाहता है सऊदी अरब अमेरिका से और क्यों बदल रही है मध्य-पूर्व की कूटनीति?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का हालिया मध्य-पूर्व दौरा एक बार फिर भू-राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गया है। इस दौरे की शुरुआत सऊदी अरब से हुई, जहां ट्रंप ने 141 बिलियन डॉलर के एक विशाल हथियार सौदे पर हस्ताक्षर किए। व्हाइट हाउस ने इस सौदे को अमेरिका के इतिहास का सबसे बड़ा रक्षा सौदा बताया है। ट्रंप और सऊदी अरब के बीच की यह गर्मजोशी तब और स्पष्ट हो जाती है जब हम पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच आए तनाव को देखते हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सऊदी अरब अमेरिका से क्या हासिल करना चाहता है और क्यों बाइडेन से दूरी बनाकर ट्रंप से इतनी नजदीकी दिखा रहा है?
डोनाल्ड ट्रंप का अपने दूसरे कार्यकाल में पहले विदेशी दौरे के लिए सऊदी अरब को चुनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अपने पहले कार्यकाल में भी उन्होंने सबसे पहले इसी तेल समृद्ध खाड़ी देश का दौरा किया था। यह ट्रंप और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के बीच व्यक्तिगत संबंधों की गहराई को दर्शाता है, जबकि पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन के चार साल के कार्यकाल में दोनों देशों के रिश्ते काफी उतार-चढ़ाव भरे रहे। हालांकि, 2022 में बाइडेन ने भी सऊदी अरब का दौरा किया था, लेकिन उस मुलाकात में ट्रंप के दौर वाली गर्मजोशी नदारद थी।
जनवरी में दोबारा राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद, यह भी कहा गया कि ट्रंप ने पहला फोन सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस को ही किया था। अब जब वे रियाद पहुंचे, तो क्राउन प्रिंस खुद हवाई अड्डे पर उनका स्वागत करने आए और खुले मन से उनकी सराहना की।
यह सवाल महत्वपूर्ण है कि एक कट्टर मुस्लिम देश सऊदी अरब की अमेरिका के साथ दोस्ती इतनी गहरी कैसे हो गई, खासकर जब बाइडेन के कार्यकाल में रिश्ते सहज नहीं थे। जानकार बताते हैं कि क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने बाइडेन प्रशासन के साथ संबंधों को सुधारने की कोशिश की थी, लेकिन ट्रंप के कार्यकाल जैसी गर्मजोशी हासिल नहीं हो पाई।
95 साल पुरानी नींव:
वर्तमान रिश्तों की गहराई को समझने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। सऊदी अरब और अमेरिका के बीच संबंधों की नींव 1930 के दशक में ही पड़ गई थी। यह वही समय था जब सऊदी अरब में विशाल तेल भंडार की खोज हुई और अमेरिकी कंपनियों ने यहां निवेश करना शुरू कर दिया। अमेरिका ने सऊदी अरब को मध्य-पूर्व में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार के रूप में देखना शुरू कर दिया था।
1945 में सऊदी अरब के तत्कालीन किंग अब्दुल अजीज और अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट की ऐतिहासिक मुलाकात हुई, जिसने दोनों देशों के रिश्तों को और मजबूत किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की वैश्विक व्यवस्था में दोनों नेताओं ने एक-दूसरे की जरूरतों को महसूस किया और करीब आते चले गए। इसी मुलाकात में एक अनौपचारिक समझौते की नींव पड़ी, जिसे 'तेल के बदले सुरक्षा' के तौर पर जाना जाता है। इस समझौते के तहत सऊदी अरब अमेरिका को तेल की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने पर सहमत हुआ, जबकि अमेरिका ने सऊदी अरब की सुरक्षा और सैन्य जरूरतों को पूरा करने का वादा किया, जिसमें हथियारों की आपूर्ति भी शामिल थी।
समय के साथ यह रिश्ता और मजबूत होता गया। अमेरिका ने न केवल सऊदी अरब को अत्याधुनिक हथियार उपलब्ध कराए, बल्कि सैन्य तकनीक और प्रशिक्षण में भी सहयोग किया। देखते ही देखते, ईरान के बढ़ते प्रभाव और आतंकवाद के खिलाफ सऊदी अरब, अमेरिका के लिए मध्य-पूर्व क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय साझेदार के रूप में उभरा।
ट्रंप का दौर: रिश्तों को नई ऊंचाइयां और व्यापारिक सौदे:
2017 में जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने भी अपने पहले विदेश दौरे के लिए सऊदी अरब को चुना। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच 110 बिलियन डॉलर के एक बड़े हथियार सौदे पर हस्ताक्षर हुए, जो उस समय तक का सबसे बड़ा द्विपक्षीय रक्षा सौदा था।
ट्रंप और क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के बीच व्यक्तिगत संबंध काफी मजबूत थे। ट्रंप ने सार्वजनिक रूप से क्राउन प्रिंस की नीतियों और नेतृत्व की प्रशंसा की। जब ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति चुने गए, तो सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ने अमेरिका में 600 बिलियन डॉलर के विशाल निवेश की घोषणा कर दी, जिससे दोनों देशों के आर्थिक संबंध और गहरे हो गए।
हाल ही में, अपने दूसरे कार्यकाल के पहले सऊदी अरब दौरे पर, ट्रंप ने 141 बिलियन डॉलर के एक और बड़े हथियार सौदे पर हस्ताक्षर किए। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, व्हाइट हाउस ने इसे 'सबसे बड़ा रक्षा सहयोग समझौता' बताया है। इस नए सौदे के तहत अमेरिका, सऊदी अरब को विभिन्न क्षेत्रों में हथियार और सैन्य तकनीक उपलब्ध कराएगा, जिसमें वायुसेना और अंतरिक्ष सुरक्षा को मजबूत करना, हवाई और मिसाइल हमलों से बचाव, नौसेना का आधुनिकीकरण, सीमा सुरक्षा को बढ़ाना, सेना को नई तकनीकों से लैस करना और सूचना व संचार प्रणालियों को मजबूत करना शामिल है।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि धर्म से परे, दोनों देश अपने-अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रख रहे हैं। दोनों व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं। इस बहाने सऊदी अरब अपनी सैन्य क्षमता को मजबूत कर रहा है, जबकि अमेरिका ईरान के बढ़ते प्रभाव को क्षेत्र में सीमित करने के लिए सऊदी अरब को एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में देखता है।
बाइडेन के दौर में रिश्तों में खटास:
बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद सऊदी अरब के साथ अमेरिका के रिश्तों में खटास आ गई थी। इसकी एक बड़ी वजह 2018 में अमेरिकी पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या थी, जिसमें अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने सऊदी अरब के शीर्ष शासकों की संभावित संलिप्तता की ओर इशारा किया था। राष्ट्रपति बाइडेन ने इस मुद्दे पर सऊदी अरब के नेतृत्व की सार्वजनिक रूप से आलोचना की। उनके प्रशासन ने इस मामले में एक खुफिया रिपोर्ट भी जारी की, हालांकि सऊदी शासकों पर कोई सीधी कार्रवाई नहीं की गई।
इसके अलावा, बाइडेन प्रशासन ने यमन युद्ध में इस्तेमाल होने वाले अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति पर अस्थायी रोक लगा दी और पहले से हुए हथियार सौदों की समीक्षा शुरू कर दी। यह कदम मानवाधिकारों को लेकर बाइडेन प्रशासन की कथित चिंता को दर्शाता था, जो ट्रंप प्रशासन की तुलना में सऊदी अरब के मानवाधिकार रिकॉर्ड पर अधिक मुखर था।
हालांकि, रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद वैश्विक ऊर्जा समीकरण अचानक बदल गए। अमेरिका में तेल की कीमतें आसमान छूने लगीं। इस स्थिति में अमेरिका ने सऊदी अरब से तेल उत्पादन बढ़ाने की गुजारिश की, लेकिन ओपेक देशों ने तेल उत्पादन में कटौती की घोषणा कर दी, जिससे अमेरिका की उम्मीदों पर पानी फिर गया। इससे अमेरिका नाराज हुआ और उसने सऊदी अरब को 'परिणाम भुगतने' की धमकी भी दी।
हालात की गंभीरता को देखते हुए, राष्ट्रपति बाइडेन ने 2022 में सऊदी अरब का दौरा किया। इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य आपसी जरूरतों को देखते हुए और क्षेत्रीय भू-राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए रिश्तों को सामान्य बनाना था। ईरान के साथ अमेरिका के दशकों पुराने तनाव जगजाहिर हैं और सऊदी अरब इस क्षेत्र में ईरान के प्रभाव को संतुलित करने में अमेरिका के लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
चीन का दखल और अमेरिका की चिंता:
मार्च 2023 में एक और घटनाक्रम हुआ जिसने अमेरिका की चिंता बढ़ा दी। चीन ने खाड़ी क्षेत्र में अपनी सक्रियता बढ़ाई, जिसे पारंपरिक रूप से अमेरिका अपना प्रभाव क्षेत्र मानता रहा है। चीन ने ईरान और सऊदी अरब के बीच संबंधों को सामान्य करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे दोनों कट्टर प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच कूटनीतिक संबंध बहाल हुए। चीन की यह सक्रियता अमेरिका के लिए एक बड़े भू-राजनीतिक झटके से कम नहीं थी।
इस घटनाक्रम के बाद अमेरिका ने तत्काल सऊदी अरब के साथ रिश्तों में गर्माहट लाने की कोशिशें तेज कर दीं और कुछ हद तक सफलता भी मिली। अमेरिका यह भलीभांति जानता था कि यदि वह सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों को प्राथमिकता नहीं देता है, तो चीन इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में अपनी पैठ मजबूत कर लेगा, जिससे अमेरिका के रणनीतिक हित प्रभावित होंगे।
सऊदी अरब के महत्वाकांक्षी 'विजन 2030' के तहत, देश अपनी अर्थव्यवस्था को तेल पर निर्भरता से मुक्त करते हुए अन्य क्षेत्रों में विविधता लाने की कोशिश कर रहा है। इस विजन के तहत कई अमेरिकी कंपनियों के लिए सऊदी अरब में निवेश के अवसर पैदा हुए हैं। बाइडेन प्रशासन को यह अहसास हुआ कि यदि वह सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों को खराब रखता है, तो अमेरिकी कंपनियों के लिए व्यापार के अवसर कम हो सकते हैं और मध्य-पूर्व में अमेरिका का प्रभाव कमजोर पड़ सकता है। इसी कारण बाइडेन प्रशासन ने अपने रुख में नरमी दिखाई और अब ट्रंप उस रिश्ते को और अधिक मजबूत करते दिख रहे हैं।
तेल अमेरिका की जरूरत, हथियार सऊदी अरब की:
अमेरिका और सऊदी अरब के बीच संबंधों की बुनियाद साझा हितों पर टिकी है। 1973 के अरब-इजरायल युद्ध के दौरान, अरब देशों ने इजरायल का समर्थन करने के कारण अमेरिका को तेल की आपूर्ति बंद कर दी थी। यह अमेरिका के लिए एक बड़ा ऊर्जा संकट था, जिसके बाद उसने सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों को नए सिरे से मजबूत किया। अमेरिका ने यह मान लिया था कि अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए सऊदी अरब एक अपरिहार्य भागीदार है।
1990-91 के खाड़ी युद्ध के दौरान जब इराक ने कुवैत पर हमला किया, तो सऊदी अरब ने अमेरिका को अपनी जमीन पर सैनिक उतारने की अनुमति दी, जिससे 'ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म' के तहत कुवैत को मुक्त कराने में मदद मिली। इस घटना ने दोनों देशों के बीच रणनीतिक साझेदारी को और मजबूत किया।
9/11 के हमलों में शामिल 19 आतंकवादियों में से 15 सऊदी अरब के नागरिक थे, जिसके बाद एक बार फिर दोनों देशों के रिश्तों में हल्का तनाव आया। हालांकि, रणनीतिक साझेदारी अपनी जगह पर कायम रही क्योंकि अमेरिका यह जानता था कि अगर सऊदी अरब के साथ उसके रिश्ते टूटते हैं, तो इसका सीधा फायदा रूस और ईरान जैसे देशों को होगा, जिसे अमेरिका कभी नहीं चाहेगा।
असली मामला: साझा रणनीतिक और आर्थिक हित:
वास्तविकता यह है कि सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान तेल पर अपनी आर्थिक निर्भरता को कम करते हुए पर्यटन, तकनीक और शिक्षा जैसे अन्य क्षेत्रों में विस्तार करना चाहते हैं। इसके लिए वे इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहे हैं। दूसरी ओर, डोनाल्ड ट्रंप एक व्यापारी मानसिकता वाले नेता हैं। राष्ट्रपति के रूप में भी उन्होंने खुले तौर पर व्यापारिक हितों को प्राथमिकता दी है। अपने दूसरे कार्यकाल में अमेरिका द्वारा शुरू किया गया टैरिफ युद्ध भी व्यापार का ही एक हिस्सा है।
सच्चाई यह है कि सामरिक, राजनीतिक, भौगोलिक और व्यापारिक हितों के मामले में दोनों देश एक-दूसरे पर महत्वपूर्ण रूप से निर्भर हैं। अमेरिका को अपनी ऊर्जा जरूरतों और मध्य-पूर्व में रणनीतिक ठिकानों की आवश्यकता है, जबकि सऊदी अरब को अपनी सुरक्षा के लिए उन्नत हथियार और अपनी अर्थव्यवस्था के विविधीकरण के लिए अमेरिकी तकनीक और निवेश की जरूरत है। यही साझा जरूरतें दोनों देशों को एक मंच पर लाती हैं।
फोरम फॉर ग्लोबल स्टडीज के डॉ. संदीप त्रिपाठी का कहना है कि सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस के साथ ट्रंप के व्यक्तिगत संबंध बहुत अच्छे हैं। सऊदी अरब को अमेरिका से उन्नत हथियार, फाइटर जेट और तकनीक चाहिए, जिसके बदले में अमेरिका व्यापारिक लाभ उठाएगा। तेल सऊदी अरब पहले से ही अमेरिका को निर्यात कर रहा है। इस दौरे का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि ट्रंप इस बार इजरायल नहीं गए, बल्कि उन्होंने वहां शांति स्थापित करने की इच्छा जताई और वह कतर और यूएई जैसे अन्य खाड़ी देशों का दौरा करेंगे। त्रिपाठी का मानना है कि इस दौरे के जरिए ट्रंप इजरायल पर गाजा संघर्ष को समाप्त करने का दबाव बनाने की कोशिश कर सकते हैं। इसके अलावा, भारत-पाकिस्तान के मामले पर एकतरफा बयान देकर वह खुद को एक क्षेत्रीय मध्यस्थ के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।
संक्षेप में, अमेरिका और सऊदी अरब के बीच जटिल और बहुआयामी संबंधों को सिर्फ धार्मिक या व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। यह एक रणनीतिक साझेदारी है जो साझा भू-राजनीतिक और आर्थिक हितों पर आधारित है। बाइडेन के कार्यकाल में मानवाधिकारों जैसे मुद्दों पर तनाव जरूर दिखा, लेकिन अंततः दोनों देशों ने अपने व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए संबंधों को बनाए रखा। अब, ट्रंप के दोबारा सत्ता में आने के साथ, यह साझेदारी एक बार फिर नई ऊंचाइयों को छूती दिख रही है, जहां हथियारों के सौदे और आर्थिक निवेश मध्य-पूर्व की कूटनीति को नया आकार दे रहे हैं।