कब तक हम आतंकियों का खूनी खेल झेलते रहेंगे? पहलगाम नरसंहार ने फिर उठाए गंभीर सवाल
पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार ने देश को झकझोर दिया है। क्या हम आतंकवाद से निपटने के लिए तैयार हैं? पढ़िए इस हमले से जुड़े गंभीर सवाल और सुरक्षा तंत्र की खामियां।

नई दिल्ली।
कश्मीर की सुरम्य वादियों में बसे पहलगाम का नाम अब एक और बर्बर आतंकवादी हमले के कारण इतिहास के काले पन्नों में दर्ज हो गया है। 22 अप्रैल को बैसरण मैदान में हुए नरसंहार में 26 हिंदुओं को सिर्फ उनके धर्म के आधार पर बेरहमी से गोली मार दी गई। यह घटना न केवल दिल दहला देने वाली है, बल्कि यह एक बार फिर देश की सुरक्षा व्यवस्था, खुफिया तंत्र और आतंकवाद के खिलाफ हमारी रणनीति पर कठोर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।
खूबसूरती के बीच बर्बरता
पहलगाम, जिसे आमतौर पर पर्यटन और अमरनाथ यात्रा के कारण जाना जाता है, अब आतंक का प्रतीक बन गया है। हमलावरों ने घटनास्थल पर पहले से रेकी की, पर्यटकों की धार्मिक पहचान पूछी, और जिन्हें मुस्लिम न पाया, उन्हें जान से मार डाला। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, कुछ पीड़ितों को 'कलमा' पढ़ने को भी कहा गया — जो नहीं पढ़ सके, उन्हें गोली मार दी गई।
क्या हम पहले से युद्ध में हैं?
वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने अपने कॉलम में लिखा,
"हम एक खुले युद्ध में नहीं, बल्कि छद्म युद्ध में हैं। दुश्मन सैन्य शिविरों को नहीं, निहत्थे नागरिकों को निशाना बनाता है, ताकि डर और अस्थिरता फैले।"
उनका कहना है कि हम बार-बार कह रहे हैं कि 'बदला लिया जाएगा', लेकिन सवाल यह है कि ऐसी घटनाएं बार-बार क्यों हो रही हैं?
आतंकियों की तकनीक के सामने हमारी विफलता
सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि अब आतंकी फोन का उपयोग नहीं करते, गूगल मैप्स की बजाय ग्राउंड रेकी पर भरोसा करते हैं, और ऐसी तकनीक से लैस हैं जो सुरक्षा एजेंसियों की निगाह से बच जाती है। सवाल यह है — क्या हमारी खुफिया एजेंसियां 21वीं सदी के आतंकवाद से निपटने के लिए तैयार हैं? क्यों ड्रोन सर्विलांस, सैटेलाइट इंटेलिजेंस और AI आधारित विश्लेषण का उपयोग नहीं हो रहा?
साजिश की बारीकी, सिस्टम की नाकामी
बैसरण मैदान कोई दूरदराज की जगह नहीं, बल्कि एक लोकप्रिय ट्रैकिंग प्वाइंट है। वहां आतंकियों को घंटों तक घूमने, रेकी करने और धर्म पूछकर लोगों को मारने का समय कैसे मिला? क्या स्थानीय पुलिस और सुरक्षाबल इतनी सुस्त हैं? या यह सिस्टम की गहरी विफलता है?
पुराने घाव, फिर से हरे
इस हमले की तुलना अब 2000 के छत्तीसिंहपोरा नरसंहार से की जा रही है, जहां 36 सिखों की हत्या की गई थी। उस घटना के दोषी आज तक नहीं पकड़े गए। तब की सरकारों ने जाँच के नाम पर केवल बयानबाजी की थी। क्या इस बार भी वैसा ही होगा?
'जीरो टॉलरेंस' के खोखले वादे?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार की रैली में कहा कि "हम हमलावरों को ढूंढकर सज़ा देंगे", जबकि गृह मंत्री ने 'जीरो टॉलरेंस' की नीति की बात दोहराई। लेकिन असली सवाल यह है — जब बार-बार खुफिया चेतावनियों के बावजूद ऐसे हमले होते हैं, तो जिम्मेदारी किसकी है?
अगर आतंकियों के घर हमले के बाद ही गिराए जा सकते हैं, तो उनकी पहचान पहले क्यों नहीं की गई?
पाकिस्तान और आईएसआई की भूमिका पर चुप्पी क्यों?
अब तक की जांच में यह स्पष्ट है कि हमले की साजिश पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI द्वारा रची गई थी। लेकिन भारत की ओर से कोई ठोस कूटनीतिक या सैन्य प्रतिक्रिया अभी तक सामने नहीं आई है। पाकिस्तान हर बार की तरह इसे 'फॉल्स फ्लैग' बता रहा है, और हमारे बयान फिर से सीमित होकर ‘कड़ी निंदा’ तक सिमट गए हैं।
क्या हमें चाहिए एक अलग रणनीति?
रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि हमें अब एक प्रोएक्टिव आतंकवाद विरोधी नीति अपनानी चाहिए — जिसमें तकनीक, मानव इंटेलिजेंस और हाई-टेक सैन्य इकाइयों का समावेश हो। अमेरिका, इजरायल और रूस जैसे देशों ने आंतरिक सुरक्षा के लिए जो ढांचे तैयार किए हैं, क्या भारत भी उसी राह पर चलेगा?
टीवी डिबेट्स और असली सवाल
जैसे ही पहलगाम का नरसंहार हुआ, देशभर में टीवी स्टूडियोज़ में राष्ट्रवाद की बहस छिड़ गई। एंकर्स चीखने लगे, “हम पाकिस्तान पर कब हमला करेंगे?” लेकिन क्या किसी ने यह पूछा कि इस स्तर की सुरक्षा चूक आखिर कैसे हुई? इस पर पर्दा डालने के लिए ‘राष्ट्रवादी शोर’ एक सुविधाजनक रास्ता बन गया है।
जनता का गुस्सा और सेना का मनोबल
सोशल मीडिया पर आम जनता का गुस्सा फूट पड़ा है। 'सर्जिकल स्ट्राइक 2.0', 'पूरा पाकिस्तान मिटा दो' जैसी मांगें तेज़ हो गई हैं। लेकिन हर बार की तरह यह गुस्सा कुछ दिन बाद ठंडा पड़ जाएगा — जब तक अगला हमला न हो जाए। सैनिकों के परिवार भी पूछ रहे हैं — "अगर हमारा खून भी सुरक्षित नहीं, तो हमें क्यों भेजा जाता है?"
निष्कर्ष: अब भी समय है चेतने का
पहलगाम नरसंहार सिर्फ एक आतंकी घटना नहीं है, यह भारत की आतंरिक सुरक्षा नीति की असफलता का आईना है। हमें अब यह मानना होगा कि यह एक स्थायी युद्ध है, और इसकी रणनीति भी स्थायी होनी चाहिए। आतंकवाद के खिलाफ केवल बयान नहीं, बल्कि सुनियोजित, निरंतर और तीव्र कार्रवाई ही एकमात्र रास्ता है।