सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: अब अदालतें कर सकेंगी मध्यस्थता फैसलों में संशोधन

सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 बहुमत से फैसला सुनाया कि अदालतें 1996 के मध्यस्थता कानून के तहत फैसलों में सीमित संशोधन कर सकती हैं।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: अब अदालतें कर सकेंगी मध्यस्थता फैसलों में संशोधन

भारत के न्यायिक इतिहास में एक अहम मोड़ आया है जब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह स्पष्ट कर दिया कि अदालतों के पास मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत दिए गए फैसलों में सीमित रूप से संशोधन करने की शक्ति है। इस बहुप्रतीक्षित निर्णय ने न केवल देश की मध्यस्थता प्रक्रिया की परिभाषा को नए सिरे से गढ़ा है, बल्कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मामलों में विवाद निपटान की दिशा भी तय कर दी है।

चार जजों की सहमति, एक की असहमति

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के नेतृत्व में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से यह फैसला सुनाया। बहुमत में सीजेआई खन्ना के साथ न्यायमूर्ति बीआर गवई, संजय कुमार और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल थे। केवल न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन ने इस पर असहमति जताई। उन्होंने तर्क दिया कि अदालतें मध्यस्थता फैसलों को सिर्फ रद्द कर सकती हैं, लेकिन उनमें संशोधन नहीं कर सकतीं क्योंकि अधिनियम में "संशोधन" का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।

अदालतों की भूमिका अब और महत्वपूर्ण

फैसले में कहा गया है कि अदालतें धारा 34 और 37 के तहत दिए गए अधिकारों का उपयोग करते हुए मध्यस्थता निर्णयों में संशोधन कर सकती हैं, लेकिन यह शक्ति "सावधानीपूर्वक और सीमित तरीके" से इस्तेमाल की जानी चाहिए। इसका सीधा मतलब है कि अदालतें अब न सिर्फ किसी मध्यस्थ फैसले को रद्द कर सकती हैं, बल्कि उसमें आवश्यक सुधार भी कर सकती हैं, बशर्ते वह कानूनी और प्रक्रियागत मानकों के भीतर हो।

दलीलों की कसौटी पर खरा उतरा फैसला

इस ऐतिहासिक मामले में दोनों पक्षों की ओर से गंभीर और विस्तृत दलीलें पेश की गईं। वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार और उनकी टीम ने तर्क दिया कि जब अदालत के पास निर्णय को रद्द करने का अधिकार है, तो आवश्यकतानुसार संशोधन का अधिकार भी उसके विवेक का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी ओर, विरोधी पक्ष ने यह रेखांकित किया कि अधिनियम में "संशोधन" का कोई उल्लेख नहीं है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि ऐसा अधिकार अदालत को नहीं है।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी कानून की व्याख्या करते हुए कहा कि 1996 का अधिनियम एक सुविचारित और समग्र कानूनी ढांचा है, जिसमें प्रत्येक प्रावधान एक उद्देश्य के साथ जोड़ा गया है। उनका मत था कि यदि संशोधन का प्रावधान नहीं है, तो इसे जोड़ने का कार्य संसद का है, न कि न्यायपालिका का।

घरेलू और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव

यह फैसला न केवल भारत में घरेलू मध्यस्थता मामलों को प्रभावित करेगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक विवादों में भी इसका असर पड़ेगा। कंपनियां और निवेशक इस फैसले को "न्यायिक हस्तक्षेप की परिधि" की नई परिभाषा के रूप में देखेंगे। इससे भारत में मध्यस्थता को लेकर विश्वास और पारदर्शिता में इज़ाफा होने की संभावना है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक संतुलित दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है, जिसमें अदालत की शक्तियों का सम्मान करते हुए मध्यस्थता की आत्मा को भी सुरक्षित रखा गया है। जहां एक ओर यह निर्णय न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं को स्पष्ट करता है, वहीं दूसरी ओर यह यह भी सुनिश्चित करता है कि मध्यस्थता प्रक्रिया में न्याय और तर्क की जीत हो।